इस धरती को देवों की धरती और भोले शंकर की नगरी कहा जाता है इसलिए यहाँ के लोगों पे देवी देवताओं का खास आशीर्वाद है जिस वजह से इनका रहन सहन और गुजर बसर अच्छे से हो जाता है ,इस नगरी में कोई भी परिवार गरीबी रेखा से नीचे नहीं है सभी लोग मेहनती हैं जिसकी वजह से सब पे भोले शंकर महादेव की मेहर हैं
ये वो मंदिर हैं जो चम्बा के भरमौर इलाके में स्थित हैं और अपनी मान्यता के चलते बहुत प्रशिद्ध हैं
मंदिर के नाम | जगह | समर्पित |
धर्मऱाज मंदिर | भरमौर | यमराज जी |
संधोला मंदिर | धरून (सिंयूर )भरमौर | संधोला लोकल देवता |
नाग देवता मंदिर | सवाई ककरी | नाग देवता |
धर्मऱाज मंदिर
चित्र 1 (धर्मराज मंदिर )
यमराज का यह मंदिर हिमाचल के चम्बा जिले में भरमौर नाम स्थान पर स्थित है जो एक भवन के समान है। कहते हैं कि विधाता लिखता है, चित्रगुप्त बांचता है, यमदूत पकड़कर लाते हैं और यमराज दंड देते हैं। मान्यता हैं कि यहीं पर व्यक्ति के कर्मों का फैसला होता है। यमराज का नाम धर्मराज इसलिए पड़ा क्योंकि धर्मानुसार उन्हें जीवों को सजा देने का कार्य प्राप्त हुआ था।
यह मंदिर देखने में एक घर की तरह दिखाई देता है जहां एक खाली कक्ष है जिमें भगवान यमराज अपने मुंशी चित्रगुप्त के साथ विराजमान हैं। इस कक्ष को चित्रगुप्त का कक्ष कहा जाता है। चित्रगुप्त यमराज के सचिव हैं जो जीवात्मा के कर्मो का लेखा–जोखा रखते हैं।
मान्यता अनुसार जब किसी प्राणी की मृत्यु होती है तब यमराज के दूत उस व्यक्ति की आत्मा को पकड़कर सबसे पहले इस मंदिर में चित्रगुप्त के सामने प्रस्तुत करते हैं। चित्रगुप्त जीवात्मा को उनके कर्मो का पूरा ब्योरा सुनाते हैं। इसके बाद चित्रगुप्त के सामने के कक्ष में आत्मा को ले जाया जाता है। इस कमरे को यमराज की कचहरी कहा जाता है। यहां पर यमराज कर्मों के अनुसार आत्मा को अपना फैसला सुनाते हैं।
माना जाता है कि इस मंदिर में चार अदृश्य द्वार हैं जो स्वर्ण, रजत, तांबा और लोहे के बने हैं। यमराज का फैसला आने के बाद यमदूत आत्मा को कर्मों के अनुसार इन्हीं द्वारों से स्वर्ग या नर्क में ले जाते हैं। गरुड़ पुराण में भी यमराज के दरबार में चार दिशाओं में चार द्वार का उल्लेख किया गया है।
अकसर लोग धर्मराज के बारे में सुनते हैं। लेकिन, भरमौर में साक्षात धर्मराज विराजमान हैं। मान्यता है कि यहां उनकी कचहरी लगती है और जीव आत्माओं के कर्मोँ का पूरा हिसाब होता है। जी हां, बताया जाता है कि भरमौर क्षेत्र में स्थापित धर्म राज के इस मंदिर को विश्व में इकलौता होने का भी गौरव हासिल है।
चित्र 2. धर्मराज मंदिर
मणिमहेश यात्रा में शामिल होने के लिए देश के कोने–कोने से आने वाले श्रद्धालु इस पवित्र मंदिर के दर्शन करते हैं। कई सिद्ध पुरुष इस बात का दावा भी कर चुके हैं कि उन्होंने धर्मराज की कचहरी में होने वाले सवाल–जवाब खुद सुने हैं। हालांकि इसके फिलहाल प्रत्यक्ष प्रमाण मौजूद नहीं हैं।
चौरासी परिसर में बने इस मंदिर के ठीक सामने चित्रगुप्त का आसन बनाया गया है। जबकि मंदिर से पहले सीढ़ियां और एक गुप्त यंत्र स्थापित है। बताया जाता है कि इसी गुप्त यंत्र से धर्मराज सबके जीवन का हिसाब लेते हैं। साथ ही मंदिर के बगल में ढाई सीढ़ियां लगी हैं जिन्हें स्वर्ग के दरवाजे के रूप में भी देखा जाता है।
ऐसा माना जाता है कि भरमौर में चौरासी मंदिर परिसर दसवीं शताब्दी से भी पहले का बना है। यहां अलग–अलग देवताओं की शरण स्थली है। चौरासी में धर्मराज मंदिर वाली जगह स्थापित टेढ़ा शिवलिंग था।
चित्र 3 शिवलिंग
यहां महाराज कृष्ण गिरि ने 1950 के बाद अपना आसन लगाया था। बताया जाता है कि उस समय महात्मा के साथ मिलकर कुछ लोगों ने शिवलिंग का सीधा करने की कोशिश की। लेकिन अंतहीन खुदाई की वजह से उन्हें काम रोकना पड़ा।
इसके बाद महाराज कृष्ण गिरि ने कई महीनों तक मंदिर के बाहर साधना की और उन्हें इस बात का आभास हुआ कि यहां धर्मराज की कचहरी लगती है। महाराज कृष्ण गिरि का 1962 में देहांत हो चुका है और उनकी समाधि धर्मराज मंदिर के साथ ही बनी है। धर्मराज मंदिर के पुजारी पंडित लक्ष्मण दत्त शर्मा का कहना है कि उनके पूर्वज मंदिर में पूजा–अर्चना करते आए हैं।
उन्होंने इस बात का खुलासा किया था कि मंदिर परिसर में कई बार ऐसी ध्वनियां सुनाई देती हैं जैसे कोर्ट में बहस हो रही हो। उन्होंने कहा कि चित्रगुप्त सभी के कर्मों का हिसाब रखते हैं और मृत्यु के बाद दूसरी दुनिया का मार्ग धर्मराज की सीढ़ियों से होकर ही जाता है।
संधोला मयाड़ी मंदिर
चित्र 4(संधोला मयाड़ी )
संधोला मयाड़ी मंदिर एक बहुत ही लोकप्रिय मंदिर है यह एक बहुत ही सुंदर और मंत्रमुग्ध घाटी में स्थित है। यह मंदिर हिमाचल प्रदेश के चम्बा जिले की भरमौर तहसील के सिंयूर गावं से ऊपर की घाटी में स्तिथ है। इन् देवता को बहुत सारे गांव के कुल देवता के रूप में माना जाता है।
इस मंदिर तक जाने के लिए हमें कम से कम 7 और 8 किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है यह मंदिर भरमौर् से 30 या 34 किलोमीटर दूर स्थित है यह मंदिर एक पहाड़ की गोद में स्थित है सिंयूर नामक गांव तक यात्री अपनी गाड़ी में जा सकते हैं उसके बाद हमें अपनी यात्रा पैदल शुरू करनी पड़ती हैं पौराणिक मान्यताओं के अनुसार संधोला जी कई सदियों पहले इस घाटी में आए थे इनका नाम संधोला इसलिए जाना जाता है क्योंकि यह सिंधोल नाला जो कि लाहौल में स्थित है वहां से प्रस्थान करके इस घाटी में आए थे वहां के राजा मानेजाते थे इसलिए इसे यहाँ भी सिंधोल राजा के नाम से जाना जाता है इस धार का नाम दारूण घाटी है जो कि अति सुंदर और मनमोहक घाटी है यह मंदिर अपनी कुछ खास मान्यताओं और विशेषताओं के कर के प्रसिद्ध है इस मंदिर को एक छोटे से पानी के चश्मे जिसे हम बॉडी कहते हैं उसके ऊपर बनाया गया है इस पानी के अंदर बहुत समय पहले एक मणि हुआ करती थी जिसकी चमक आसपास के घाटी के लोग रात को देख सकते थे रात के समय यहां किसी भी रोशनी के उपकरण की जरूरत नहीं पड़ती थी क्योंकि वह मणि ही इतनी रोशनी पैदा कर देती थी जिससे यह घाटी जगमगा जाती थी उस पानी के चश्मे के ऊपर कुछ लकड़ी के तख्ते को रखा गया हुआ है और उसी के ऊपर संधोला जी की मूर्ति को स्थापित किया गया हुआ है यहां आने वाले हर श्रद्धालु की मनोकामना पूरी होती है
इस मंदिर के प्रांगण की एक और बड़ी विशेषता है कि यहां पर स्थित एक सफेद रंग का पत्थर है जिसका वजन ज्यादा से ज्यादा 40 या 50 किलोग्राम होगा परंतु यहां के लोकल लोग और पुजारी की मान्यताओं के अनुसार वही लोग इस पत्थर को उठा या हिला सकते हैं जिसने अच्छे कर्म किए होते हैं जिन पर भगवान की कुछ खास मेहर होती है।
यहां पर श्रद्धालुओं के रहने की भी व्यवस्था है, यह वैसे तो आकार में बहुत छोटा सा मंदिर है केवल एक आदमी या दो आदमी ही अंदर मंदिर में बैठ सकते हैं उसके लिए भी भक्तों को दरवाजे से झुक के जाना पड़ता है । एक बहुत अच्छी कहावत है कि अगर कुछ मांगना हो तो हमें झुकना आना चाहिए यह कहावत यहां बहुत अच्छे तरीके से सिद्ध होती है। यहां के लोगों और मंदिर के पुजारी का कहना है कि यह देवता मंदिर को बड़ा करने की अनुमति नहीं देते हैं । आस पास रहने के लिए यात्रियों के लिए बड़ी सराय का निर्माण किया हुआ है परंतु उस मंदिर के साथ छेड़खानी नहीं कर सकते हैं वह मंदिर आज से कई सदियों पहले जितना था जैसे बनाया गया था अभी तक भी वैसा ही है ।
इस मंदिर की दीवारों को पत्थर और मिट्टी से बनाया गया हुआ है और इसकी छत पर पत्थर के स्लेट को डाला गया हुआ है। इस मंदिर में जाकर प्रकृति का बहुत अच्छे से नजारा ले सकते हो। आप प्रकृति को अच्छे से निहार सकते हो यहां पहुंचने के बाद ऐसा प्रतीत होता है मानो जैसे स्वर्ग में आ गए हो और आप वहां के सभी गांव को वहां से देख सकते हैं।
ऐसा लगता है जैसे सभी गांव प्रकृति के चरणों में हो और आप प्रकृति के कंधे पर।
इस मंदिर में जाने का नवरात्रों का समय सबसे अच्छा समय है।और भी इस मंदिर की बहुत ही रोमांचक और रहस्यमई कहानियां है। इस मदिर पर और देवता पर बहुत से गाने भी गाए गए हैं इनके भजन और पाठ को कई गीत रूपी माला से पिरोया हुआ है।
इस मंदिर के साथ ही माता मराली का भी मंदिर हैं जिन्हे इनकी बहन के नाम से जाना जाता है और एक पंचमुखी बजरंगवली जी का भी उपयुक्त स्थान बनाया हुआ है मंदिर में रोज सुबह शाम को आरती का पारम्परिक तरीके से देसी धुप के साथ और वाद्य यंत्र के साथ आयोजन किया जाता है। जब भी इन देवता को बुलाया जाता है तो यहाँ के पारम्परिक वाद्य यंत्र को बजा के बुलाया जाता है ,जब भी देवता जी को बुलाना होता है चेले में खेल आती है जो श्रद्धालु को आशीर्वाद दे के वापिस चले जाते हैं
नाग राज मंदिर
यूँ तो गावं सवाई और ककरी में बहुत सारे मंदिर हैं जैसा की मैंने पिछले लेख में भी बताया था,जब मैंने कोटा वाली माता के बारे में बताया था ,क्यूंकि ये देवी देवताओं की धरती हैं जिस में कुछ लोकल देवी देवता है जिन्हे लोगों के कुल देवी या कुल देवता कहा जाता है। उन्ही मंदिर में से ये एक सब से अनोखा रहस्यामयी और बहुत पौराणिक विचारधााराओं से जुड़ा हुआ ये नाग देवता जी का मंदिर है।
इस मंदिर के अगर हम इतिहास की बात करें तो कहा जाता है की ये चम्बा के राजा भूरी सिंह के समय का बना हुआ है। इस मंदिर में नाग जी की नक्काशी पत्थर और लकड़ी पे की गयी हुई है ,ऐसा परतीत होता जैसे सच में नाग राज लिपटे हुए हों.इसकी पूजा अर्चना का और देख रेख की जो जिम्मेवारी दी गयी हुई थी वो राणा जाति के लोगों को दी गयी हुई थी।लेकिन पूजा के लिए बाद में ब्राह्मण जात्ति की चाबरू जत्ति के परिवार को चुंना गया जिसे हम लोकल भाषा में चेला सम्बोधित करते हैं.तीन पीडियों से ये परिवार इस मंदिर की पूजा को संभाल रहा है। जब भी कोई त्योहार यहाँ होता है तो चेला रुपी प्रथा में सिर्फ इसी परिवार को सब से आगे रखा जाता है।
इस मंदिर की कुछ खास विशेषताएं है जो में साझा करना चाहता हूँ क्यूंकि कुछ प्रथा समय के अनुसार विलुप्त हो रही हैं जिन्हे में अपनी कुछ कोशिश के माध्यम से सुचारु रूप से चलाये रखना चाहता हु।
इस मंदिर में हर साल तीन से चार त्योहार मनाये जाते हैं जिसे हम जातर और जागरा का नाम देते हैं। सब से पहली जातर जब पेड़ पे फूल आने शुरू होते हैं बसंत के समय में तब मनाई जाती है. जो की नाग देवता जी को साल की पहली भेंट और आशीर्वाद लेने जाते ताकि समस्त साल सुख समृद्धि और खेती बाड़ी से भरपूर हो। नाग देवताजी को बारिश का देवता भी कहा जाता है। इसलिए जब कभी गावं में सूखा या अकाल पड़ता था तब समस्त जन मिल के इस मंदिर में अर्जी ले के आते थे और नाग देवता जी को प्रसन करने केलिए सारी रात कीर्तन किया जाता था और मानने की बात है की समय समय पे इस गावं में बारिश हो जाया करती थी। तब से ये प्रचलन चला हुआ की हर साल खेती बाड़ी की शुरूआत और फलों की शुरुआत से पहले इस मंदिर में आते हैं और उसके बाद एक बार जब फसल उगने और पकने का समय होता तब और एक बार जब सारी फसलें खेतों से निकाल ली जाती है। तो नाग राज जी को धन्यवाद रुपी तोहफे में इस जागरण का आयोजन किया जाता था
पहली जातर जौ फूलों के समय दी जाती थी उससे हम “फहलेर ” के नाम से जानते हैं। इस मंदिर के प्रांगण में हर जातर और जागरे वाले दिन कबड्डी का आयोजन दोनों गावं के बीच में करवाया जाता है .पूजा अर्चना के बाद एक प्रथा यहाँ राक्षश को भगाने की की जाती है। कहा जाता है की जब साल के अंतिम दिनों में मंदिर के कपाट बंद होते तो उस समय राक्षश रुपी आत्मा यहाँ निवास करना शुरू करती है जिसे इस जातर के दिन भगाया जाता है। सभी लोग हाथ में प्रसाद लिए और सीटी ,पत्थर और खूब नारे हल्ला कर के और मंदिर के पीछे के दरवाजे की तरफ भगाया जाता है। ये भी कहा जाता है की अगर वो आत्मा जयादा दूर न जाये मंदिर से तो सारा साल आंधी तूफान का कहर पुरे गावं में रहता है और अगर चला जाये तो सभी फसलें और फल की खेती भरपूर होती है।
दूसरी खास विशेस्ता इस मंदिर के पानी की बौडी की है जो छोटा सा गोलाकार कुंड के रूप में है लेकिन नाग राज की मैहर से ये पानी कभी सूखता नहीं है और ना ही कभी ख़त्म होता है चाहे जितना मर्जी पानी इस्तेमाल कर लो। जातर और जागरे के समय खाना बनाने केलिए सारा पानी यही से लिया जाता परन्तु फिर भी ये छोटा सा कुंड कभी भी खाली नहीं होता
कहा जाता है की सैर की सक्रांद “संक्रांति ” को नाग देवता जी इस गावं से पलायन कर के बासंदा गावं में चले जाते थे (सैर एक बहुत ही महत्वपूर्ण त्योहार है सभी हिमाचलियों के लिए )और ढोलरु की संक्रांद “संक्रांति “को वपिस बासंदा वासी इन्हे वापिस ढोल नगाड़े और जातर के साथ इस मंदिर तक ले के आते थे उस दिन भी जागरण का आयोजन किया जाता था जिसमें सारी रात भजन कीर्तन गाया जाता था।लेकिन कुछ नरकीय काम की वजह से वापिस बासंदा गावं जाने से नाग देवता जी ने इंकार कर दिया. वहां के मंदिर में कुछ घटना घटित होने के बाद इस स्थान पे आने के लिए नाग जी ने इंकार कर दिया तब से नाग देवता जी अपने मूल मदिर में ही रहने लगे और तब से उस प्रथा को समाप्त कर दिया गया. जो बासंदा वासी ढोल नगाड़े क साथ जातर ले के मूल मंदिर में आया करते थे।
मेरा एक प्रयास शायद इन सभी प्रथाओं को वापिस ला सके और फिर से वही आस्था जाग जाये। इसी विश्वास पे में अपने गावं के हर मंदिर के ऊपर उनकी विशेषताओं को उजागर करने का प्रयास कर रहा हु। और इन्ही विशेषताओं के माध्यम से में अपने गावं का पर्यटन भी बढ़ाना चाहता हूँ। इस गावं में पर्यटन बढ़ाने के लिए बहुत क्षमता है। जिसे मैं राष्ट्रीय स्तर तक पहचान दिलवाना चाहता हूँ
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Author
Shiv Raj
PhD Researcher
Central university of Himachal Pradesh